लम्बे चुनाव को लेकर विवाद !

नई दिल्ली। चुनावों की तारीख के एलान के साथ ही विवाद भी शुरू हो गए हैं। पहला विवाद तो यही है कि इस बार भी चुनावी प्रक्रिया काफी लंबी हो गई है। मुख्य चुनाव आयुक्त ने सात चरणों में चुनाव कराने की घोषणा की है, हालांकि पिछला लोकसभा चुनाव नौ दौर में पूरा हुआ था। जो देश लगातार तरक्की कर रहा हो और जिसकी अर्थव्यवस्था निरंतर मजबूत हो रही हो, उसका लगभग दो महीने तक चुनावी प्रक्रिया में उलझे रहना परेशान तो करता ही है। हालांकि मुख्य चुनाव आयुक्त ने इसकी वजह बताते हुए कहा है कि माओवादियों और आतंकवाद के मद्देनजर चूंकि सुरक्षा बल देश के एक कोने से दूसरे तक भेजे जाएंगे, इसलिए दो चुनावों के बीच में वक्त रखना लाजिमी है। प्रशासनिक और आधिकारिक तौर पर शायद उनकी बातें सही हों, फिर भी इतने लंबे चुनाव, गरमी में मतदान और वीवीपैट के प्रयोग सहित कई अन्य सवाल हैं, जिन पर गौर करना लाजिमी ।अहम मसला यह भी है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में सभी सातों दौर में मतदान होंगे। ये वही राज्य हैं, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न सिर्फ क्षेत्रीय दलों, बल्कि गठबंधन के धड़ों से भी कड़ी लड़ाई लड़नी है। आलोचकों का कहना है कि हर फेज में यहां दो-चार सीटें होने से मोदी जमकर अपना चुनावी अभियान चला पाएंगे और क्षेत्रीय दल, जिनके संसाधन भाजपा की तुलना में कम हैं, वे शायद इतने लंबे चुनाव में टिक नहीं पाएंगे। लेकिन यहां यह समझना होगा कि सीटों का यह बंटवारा चुनाव आयोग ने किया है, भाजपा ने नहीं। और फिर लंबे चुनाव में स्थानीय मुद्दे हावी होते हैं। यानी अगर भाजपा को कोई फायदा है, तो उसे इसका घाटा भी है। सवाल यह भी उठ रहा है कि हर मतदान केंद्र पर वीवीपैट तो होगा, पर इन मशीनों में दर्ज कितने प्रतिशत मतों का परची से मिलान होगा? हालांकि चुनाव आयोग ने साफ कर दिया है कि भारतीय सांख्यिकीय संस्थान के कुछ प्रखर ‘गणनाकार’ इस मुद्दे पर विचार कर रहे हैं कि किस तरह का सैंपल वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरा उतरेगा और किसी भी तरह के पक्षपात से ऊपर माना जाएगा। चुनाव आयोग की मंशा कहीं न कहीं जनमानस में ईवीएम को लेकर उठे सवालों और चिंताओं को दूर करने की रही है। वीवीपैट से निकली परची की गिनती से संभव है कि अब ईवीएम पर लगे हर लांछन से हम दूर हट सकेंगे।


लेकिन लंबी चुनावी प्रक्रिया पर चुनाव आयोग के जवाब से लोग अब भी संतुष्ट नहीं दिख रहे हैं। अप्रैल से शुरू होकर यह प्रक्रिया 23 मई को पूरी हो रही है। कहने वाले यह कह सकते हैं कि लंबी चुनावी प्रक्रिया से सत्ताधारी दल को फायदा होगा, लेकिन वास्तव में ऐसा शायद ही होता है। यह सही है कि दक्षिण के राज्यों में पहले चुनाव होंगे और हिन्दुस्तान के उत्तर में यह प्रक्रिया विस्तृत रखी गई है, पर इसकी बड़ी वजह उत्तरी राज्यों के आंतरिक हालात, सुरक्षा बलों की आवाजाही और विशाल भूभाग की प्रशासनिक चुनौतियां आदि हैं। हालांकि एक सवाल यह जरूर है कि 48 लोकसभा सीटों वाले बड़े राज्य महाराष्ट्र और तुलनात्मक रूप से छोटे और सिर्फ 14 सीटों वाले झारखंड में चार-चार दौर में मतदान क्यों हो रहे हैं? यह महत्वपूर्ण सवाल तो है, पर अमूमन इसका जवाब दे पाना मुश्किल होता है। चुनाव आयोग सुरक्षा और प्रशासनिक व्यवस्था के मोर्चे पर संतुष्ट होने के बाद ही चुनाव करा सकता है। वैसे भी, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए आयोग का सहारा प्रशासनिक व सुरक्षा अमला ही है। लोग बेशक अटकलबाजी करेंगे, और वे सही भी हैं, मगर इससे चुनाव प्रक्रिया पर आम जनता की पकड़ ही मजबूत होती है। इससे संवाद भी बढ़ता है। लोकतंत्र के लिए आवश्यक है कि चुनाव आयोग और चुनावी प्रक्रिया पर लोगों की पकड़ हो।


लेकिन क्या चुनाव आयोग सत्ताधारी दल को नियंत्रण में रख पाएगा? यह ऐसा सवाल है, जो आम लोगों को कहीं अधिक परेशान कर रहा है। खासतौर से वायु सेना के पायलट अभिनंदन वर्धमान के चित्रों का इस्तेमाल कुछ राजनीतिक पोस्टरों में किया गया है, जिसे आदर्श आचार संहिता के विपरीत माना जा रहा है। बहरहाल, यह आने वाले दिनों में तय होगा कि चुनाव आयोग निष्पक्ष रह पाता है या नहीं? या फिर, आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में वह कितनी कड़ाई कर पाता है? लेकिन उम्मीद यही है कि भयंकर गरमी में देश के किसान, मजदूर, महिलाएं और पहली बार मत डालने वाले करीब डेढ़ करोड़ युवा मतदाता जो नई लोकसभा बनाएंगे, वह लोक चिंतन की प्रक्रिया से कहीं अधिक जुड़ी हुई होगी और लोकतंत्र में संवाद की प्रक्रिया कायम रहेगी।