विकलांगों की शिक्षा और कसौटी

नई दिल्ली। स्कूल की देहरी छू चुके विकलांग विद्यार्थियों की चुनौतियां कुछ कम नहीं होतीं। पहली चुनौती होती है रोज स्कूल तक पहुंचना और छुट्टी के बाद स्कूल से वापस घर आना। जो दूरी सामान्य बच्चे पंद्रह मिनट में चल कर तय कर लेते हैं वह दूरी विकलांगता के कारण उनके लिए आधे-पौने घंटे का द्रविड़ प्राणायाम होती है और रोजाना दिन में दो बार उन्हें इस कठिन चुनौती से जूझना पड़ता है। स्कूल का परिवेश भी कोई उत्साहवर्धक नहीं होता। इतने सारे बच्चों के बीच वह स्वयं को सबसे जुदा पाकर संकुचित होने लगता है। ऐसे में अध्यापक या कोई अन्य यदि स्नेह, सहयोग और समझदारी से काम ले, विकलांग बालक को और उसकी विकलांगता से जुड़ी परिस्थितियों को समझें तो ही कुछ सकारात्मक संभव है पर समाज में व्याप्त संवेदनहीनता के कारण अकसर ऐसा हो नहीं पाता। स्कूल में साथियों का व्यवहार, उपेक्षा, असहयोग और अध्यापकों की उदासीनता उनके मनोबल को बहुत तोड़ती हैं। ऐसे माहौल में विकलांग बच्चा स्वयं को अवांछित महसूस करता है।



स्कूल में पढ़ाई के सिलसिले में कभी साइंस लैब, कभी लाइब्रेरी, कभी असेंबली कक्ष, कभी यहां-कभी वहां जाना ही पड़ता है। सामान्य विद्यार्थियों के लिए यह सब जहां चुटकियों का खेल है उन सबके पीछे-पीछे धीरे-धीरे आते हुए एकाकी विकलांग बालक के लिए पीड़ा का सबब है। ज्यादा दूर तक चल न पाने की पीड़ा से भी ज्यादा गहरी होती है एकाकी रह जाने की, सबसे पीछे छूट जाने की पीड़ा। अन्य विद्यार्थी जहां हो-हुल्लड़ करते हुए कुछ ही पलों में गंतव्य तक पहुंच जाते हैं, विकलांग बच्चा सबसे पीछे चलता हुआ सबके बाद वहां पहुंचता है और वह भी बिल्कुल अकेला। ऐसा हमेशा होता है उसके साथ।


स्कूल में होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियों और खेलकूद के आयोजन उसे और भी उदास और असहज बना देते हैं, इस एहसास के कारण कि इन आयोजनों का तो उसे आजीवन दर्शक मात्र ही बना रहना है। स्कूल द्वारा आयोजित पिकनिक, ऐतिहासिक स्थलों और अन्य पर्यटन स्थलों पर भ्रमण के कार्यक्रमों में विकलांग विद्यार्थियों की भागीदारी बिल्कुल नगण्य होती है क्योंकि अध्यापक गण उन्हें साथ ले जाने के बिल्कुल भी इच्छुक नहीं होते। एक पल को भी वे यह नहीं सोचते कि सामान्य विद्यार्थियों की तरह यह बच्चा भी साथियों के साथ बाहर जाने का कितना इच्छुक होगा!


अगर उसे अकेले पीछे छोड़ दिया गया तो इसका कितना नकारात्मक असर उसके दिलो दिमाग पर पड़ेगा, उसका पहले से ही चोटिल मन और भी लहूलुहान हो जाएगा! शायद ही किसी को उसके जख्मों और उनसे निरंतर रिसने वाले लहू का एहसास होता है। उनकी अक्षमता के चलते उनके मित्रों का दायरा बहुत ही सीमित होता है क्योंकि न तो वे ज्यादा दूर तक चल पाते, न खेल पाते, न नृत्य कर पाते, न पहाड़ों पर ट्रैकिंग कर पाते, न रमणीक स्थलों का पैदल भ्रमण कर पाते और भी ना जाने क्या-क्या! आशय यह कि बहुत सारे आयोजनों में वे दूसरों का साथ नहीं दे सकते, इस कारण अन्य उनसे बस औपचारिक संबंध ही रखते हैं।