नोएडा। अगर कोई आपसे ये कहे कि किसी एक किताब को पढ़ने के बाद उसकी जिन्दगी बदल गई, उसके चिंतन की दिशा एक शाश्वत विश्वास पर केंद्रित हो गई और फिर मन में कोई भ्रम या संशय नहीं रहा तो उसे आप शायद कम अक्ल, छोटी समझ का या कुएँ का मेढ़क कहेंगे, पर मुझे ये स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि मेरे साथ ऐसा ही है। छठी क्लास में पढ़ने को मिली एक किताब ने मेरे सोच की दिशा बदल दी, उसे पढ़ने के बाद फिर कोई शंका हिंदुत्व को लेकर बची ही नहीं।
ये किताब थी फ्रांसीसी लेखक और नाटककार "रोम्यां रोलां" की स्वामी विवेकानंद के ऊपर लिखी किताब। उस उम्र में अक्ल कम थी, इसलिये इस किताब को समझने में वक़्त लगा। मैंने उस किताब को बार-बार पढ़ा शायद 50 से भी अधिक बार। जितनी बार उसे पढ़ता था, हर बार एक नई रोशनी मिलती थी। मैं हिन्दू क्यों हूँ, मुझे हिन्दू ही क्यों रखना चाहिये और भारत भी हिन्दू क्यों रहे, इन प्रश्नों पर फिर मुझे आजतक कभी कोई शंका नहीं हुई।
हिन्दू धर्म के मंडन का और हिंदुत्व शाश्वत दर्शन है, इस बात को मजबूती से रखने का साहस मुझे स्वामी विवेकानंद से मिला। हमारी दादी-नानी रामायण और महाभारत से जो किस्से हमें सुनाती थीं, विश्व-बंधुत्व, मानव-एकता और प्रकृति माँ के हर रूप में ईश्वर देखने का जो संस्कार हमें उनसे मिला था, वो केवल रात को सुनाने के लिये कही गई कहानी या कोई अंधविश्वास नहीं था, बल्कि उन कहानियों और सीखों में तो वो शक्ति थी, जिसे जब स्वामी विवेकानंद शिकागो धर्मसभा में सुनाने लगे तो दुनिया भारत के इस हिन्दू संन्यासी के आगे नतमस्तक हो गई।
स्वामी जी के कुछ विरोधी कहते हैं कि स्वामी विवेकानंद सर्वधर्म समभाव की मूढ़ता के शिकार थे। ऐसी कुत्सित सोच रखने वाले लोगों ने स्वामी विवेकानंद को नहीं पढ़ा, सर्वधर्म समभाव और सर्वपंथ समादर हिन्दू की प्रकृति में है; इसलिये ये प्रवृति हम सब में है, पर स्वामी जी के सर्वधर्म समभाव और सर्वपंथ समादर की मान्यता और कथित उदारवादी और प्रगतिशील हिन्दुओं की इस सोच में जमीन-आसमान का अंतर है।
स्वामी जी सर्वपंथ समादर भाव रखते हुए भी खुद को सगर्व हिन्दू कहते थे, अपनी भाषा, अपना लिबास, अपना संस्कार, अपना देश और अपनी परम्पराओं का उन्हें जितना अभिमान था, शायद ही इस आधुनिक युग में किसी और को रहा हो। वो जिस दौर में हुए थे उस दौर में हिन्दू खुद को हिन्दू कहलाने में अपमानित महसूस करते थे, तब वो स्वामी जी ही थे, जिन्होंने "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं" का कालजयी नारा दिया था।
भारत ईसाई शासन के अधीन था, तब भी स्वामी जी ने ईसाई पादरियों से ये कहने का साहस किया था कि धर्मपरिवर्तन कराने का तुम्हारा पाप इतना बड़ा है कि समूचे हिन्दू महासागर का कीचड़ भी तुम्हारे चेहरे पर मल दिया जाये तो भी कम पड़ेगा। संत-महात्मा कई बार कड़वा सच या लीक से हटकर कोई बात इस डर से नहीं बोल पाते कि कहीं उनकी मठाधीशी न खतरे में पड़ जाये, पर विवेकानंद ने कभी इस बात की परवाह नहीं की। भारत की धर्मपरायण हिन्दुओं से ये कहने का साहस करने वाले विवेकानन्द ही थे, जिन्होंने कहा था कि हम अगले 50 साल के लिये सारे देवी-देवताओं को भूलकर सिर्फ भारत माँ की आराधना करें।
सांप और सपेरों के देश के रूप में विख्यात भारत को फिर से विश्व-गुरु के पद पर सुशोभित करने वाले, भारत को स्वाधीनता का आत्मबल देने वाले, हिन्दुओं को अश्पृश्यता निवारण की सीख देने वाले, हिन्दू और हिंदुत्व पर गर्व करने का आत्मबल भरने वाले, घरवापसी जैसे विषयों पर हिन्दू समाज का कुशल मार्गदर्शन करने वाले स्वामी विवेकानंद को विधाता ने लंबा जीवन तो नहीं दिया था, पर जितना दिया था वो भारत और हिन्दू समाज का भविष्य गढ़ने के लिये काफी है। अपने जीवन के संध्याकाल में शिलोंग में उन्होंनें अपने शिष्यों से कहा था:-
"चलो छोड़ो, अगर मौत भी हो गई तो क्या फ़र्क पड़ता है, जो मैं देकर जा रहा हूँ वह अगले डेढ़ हज़ार बर्षों की खुराक है।"
स्वामी जी का वो स्वर्गिक उदगार हमें उनके जाने के बाद से ही दिख रहा है, उनके रामकृष्ण मिशन के सारगाछी आश्रम ने भारत को पू0 माधवराव सदाशिव गोलवलकर जैसा कालजयी हिन्दू-संगठक दिया तो आज भारत का कुशल मार्गदर्शन कर रहा प्रधानमंत्री भी उन्हीं के बगीचे का कुसुम है। हमारा भविष्य और हमारा सौभाग्य-दुर्भाग्य अब इस पर निर्भर है कि बंगाल की पवित्र मिट्टी पर अवतरित महामानव नरेंद्रनाथ दत्त के विचारों को हम कितना आत्मसात करते हैं और कितना उसे लेकर आगे लेकर चलते हैं।
(11 सितंबर, 1893 की स्मृति में)
शिकागो धर्मसभा में जहाँ सभी विद्वान् दुनिया भर के चोटी के विद्वानों, वैज्ञानिकों और चिंतकों की उक्तियों के साथ अपने उद्बोधन दे रहे थे वहीं जब आप स्वामी विवेकानंद द्वारा उस धर्म-सम्मेलन में दिए गये भाषण को पढ़ेंगे तो आपको दिखेगा कि अपने पूरे भाषण में उन्होंने किसी आधुनिक वैज्ञानिक, आधुनिक चिंतन का जिक्र नहीं किया, किसी पश्चिम के बड़े विद्वान्, किसी मानवतावादी, किसी नारी-मुक्ति का लट्ठ भांजने वाले का भी जिक्र नहीं किया, मज़े की बात ये भी है कि जिनके प्रेरणा से स्वामी विवेकानंद वहां बोल रहे थे वो उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस उन अर्थों में अनपढ़ थे जिन अर्थों में आज साक्षरता को लिया जाता है. वहां सवामी जी जितना बोले वो केवल वही था जो हमारे बचपन में हमारी दादी-नानी और माँ हमें किस्से-कहानियों के रूप में सुनाती थी यानि राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर की कहानियां और हमारे उपनिषदों और पुराणों से ली गई बातें.
क्या पढ़ा था रामकृष्ण परमहंस ने और क्या कह रहे थे वहां विवेकानंद , केवल वही जिसे मिथक कहकर प्रगतिशील लोग खिल्ली उड़ाते हैं, वहीँ जिसकी प्रमाणिकता को लेकर हम खुद शंकित रहते हैं और वही जिसे गप्प कहकर हमारे पाठ्यक्रमों से बाहर कर दिया गया पर इन्हीं बातों को शिकागो धर्मसभा में रखने वाले विवेकानंद को सबसे अधिक तालियाँ मिली, बेपनाह प्यार मिला और सारी दुनिया में भारत और हिन्दू धर्म का डंका बज गया.
अपने ग्रन्थ, अपनी विरासत, अपने पूर्वज और अपने अतीत पर गर्व कीजिये. आधुनिक और रोजगारपरक शिक्षा के साथ-साथ अपने बच्चों को राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर की कहानियाँ सुनाइए..उपनिषद, रामायण, महाभारत और पुराणों की बातें बताइए फिर देखिए उसकी मानसिक चेतना और उत्थान किस स्तर तक पहुँचता है.
**अभिजीत सिंह