झारखंड चुनाव हार भाजपा के लिए एक सबक

*** भाजपा के नीति-निर्माताओं के लिए सबक है झारखंड चुनाव



झारखंड विधान सभा चुनाव में भाजपा की बुरी गत हुई। भाजपा के हाथ से सत्ता गई और इसी के साथ मुख्यमंत्री रघुवर दास भी पूर्व मुख्यमंत्री हो गए। कोढ़ में खाज यह कि अपने ही दल के वरिष्ठ नेता सरयू राय से चुनाव में अपनी कुर्सी नहीं बचा पाए और करारी शिकस्त झेलने के लिए मजबूर हुए। ऐसा क्यों हो गया... इसका विश्लेषण अब स्वयं भाजपा के उच्च पदाधिकारीगण करेंगे, लेकिन विश्व की सबसे बड़ी पार्टी इस प्रकार धराशायी क्यों होती जा रही है, सोचने की बात है। यह बड़ा अजीब लग रहा है कि देश के विभिन्न राज्यों में एकछत्र राज्य करने का सपना देखने वाली पार्टी ने एक-एक करके सभी राज्यों से सत्ता खोने लगी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देने वाले अपनी ही पार्टी का जडें़ खोदकर उसमें मट्ठा डालने की कोशिश तो नहीं कर रहे? क्योंकि जनता अब इसे सुन-सुन कर उब चुकी है और ऐसा लगता है कि वह अब भाजपा को सबक सिखाने के लिए तैयार हो गई है? बात कड़वी है, लेकिन राजनीतिज्ञों को कड़वी बात सुनने की आदत होनी चाहिए। जिस भाजपा को बड़े-बड़े नेताओं ने खड़ा किया, उसके इस प्रकार धाराशायी होने पर दुख होना तो लाजमी है।
खनिज संपदा से भरपूर झारखंड राज्य के हित के बारे में शायद ही किसी ने कभी चिंतन किया हो। अन्यथा बिहार से अलग होने के इतने वर्षों बाद जिस आशा से इस राज्य का बंटवारा हुआ था, उस हिसाब से भरपूर खनिज संपदा के बल पर इस राज्य का भरपूर विकास होना चाहिए था, लेकिन दुर्भाग्य से आज तक ऐसा नहीं हो सका और आज भी इस राज्य में भुखमरी, बेरोज़गारी और लिंचिंग में कोई कमी नहीं आई है। पिछले पांच वर्षों में तो हर क्षेत्र में हद ही हो गई। अव्वल तो राज्य से बाहर के ऐसे व्यक्ति के हाथ में प्रदेश की कमान थमा दी गई, जिसे प्रशासनिक अनुभव था ही नहीं और जिसे राज्य के भूगोल और संस्कृति का भी रत्ती भी जानकारी नहीं थी। कहा तो यहां तक जाता है कि मुख्यमंत्री के रूप में वह अपने ही दल के वरिष्ठ नेताओं से मिलते भी नहीं थे, ताकि साथ बैठकर राज्य के गंभीर समस्याओं पर विचार-विमर्श किया जा सके और उसका हल निकाला जा सके। इतनी बड़ी पार्टी द्वारा ऐसा किस नीति के तहत किया जाता किया जाता है, यह बात समझ से परे है। यह बात ठीक है कि इसी पार्टी में चुनावी रणनीति तैयार करने वाले गृहमंत्री अमित शाह और स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे नीति-निर्माता हों, उसकी राजनीति को कौन चुनौती दे सकता है? इसी तरह कई राज्यों में इसी प्रकार इन्होंने कई मुख्यमंत्रियों को स्थापित किया है, जिन्होंने अब तक अपने साथ अपनी पार्टी को शर्मसार ही किया है। 
झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रघुबर दास के लिए कहा तो यह भी जाता है कि वह ईमानदार और कर्मठ व्यक्तित्व के धनी हैं, इसलिए वह खनिज माफियाओं के चक्कर में उलझ गए और अपने साथ अपनी सरकार भी गंवा बैठे। पता नहीं ऐसे लोग राजनीति में क्यों आ जाते हैं?   राजनीति तो राजनीतिज्ञों के लिए होती है और इसीलिए सीधे व्यक्ति उसमें चल नहीं पाते। हश्र सबके सामने है। यदि केंद्र सरकार द्वारा इस सरकार के साथ कुछ दूरदर्शिता दिखाती, तो संभवतः झारखंड का हाल ऐसा नहीं होता। क्या केंद्र सरकार को इस बात की जानकारी नहीं थी कि झारखंड में माफियाओं द्वारा सरकार पर अंकुश लगाने के लिए किस प्रकार के हथकंडे अपनाए जाते हैं! यदि सरकार उस मकड़जाल में उलझ जाती है तो उसे सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाने में वे बाज नहीं आते। आज भाजपा के हाथ से वह राज्य निकल गया। अब तो कभी-कभी ऐसा लगने लगा है कि केंद्रीय निर्णायक मंडल ने अति उत्साह में किसी गैर राजनीतिक व्यक्ति, प्रशासनिक अनुभवहीन व्यक्ति को जमीन से आसमान में पहुंचाकर अपने हाथ से सत्ता गंवा दिया? इसके साथ ही सत्ता गंवाने के पीछे कई कारणों में यह भी एक कारण है कि स्थानीय नेताओं को चुनाव प्रचार के दौरान अपनी बात कहने का अवसर नहीं दिया। जो भी हो, अब भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय नीति-निर्माताओं को इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है, क्योंकि बिहार और दिल्ली का चुनाव सिर पर है।