भारी पड़ रहा है पान उत्पादकों पर गुटका उद्योग, ओठों की लाली हो रही है ख़त्म
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कभी फ़िल्म का यह गाना चौरसिया समाज को सीना चौड़ा करता था " खइ के पान बनारस वाला, खुल जाए बंद अकल का ताला, फिर तो ऐसा करे कमाल, सीधी कर दे उल्टी चाल " देश में बनारसी पान की धाक थी। पान की सुर्ख लाल करने की क्षमता ही थी कि भारत ही नहीं, कई देशों में पान का व्यापार और रोजगार पनपता था। खासकर पाकिस्तानी तो गज़ब के पान खाने की शौक़ीन थे।तब रेलवे से वहां पान की सप्लाई होती थी।पर, भारत और पाकिस्तान के बीच राजनीतिक कूटनीतिक रिश्तों में आई दरार ने पान की खेती को बेहद पीछे धकेल दिया है। पान की खेती दरअसल अब आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया तक सीमित हो गया है। बचा खुचा पान की खेती को पान गुटका निगलता जा रहा है। यही कारण है कि चौरसिया समाज को पान की परंपरागत खेती से मोह भंग होता जा रहा है। हाड़ तोड़ मेहनत के बाद भी मुनाफ़ा सिर्फ आंसू रोने के बराबर है।
पान की खेती को बचाने के लिए सरकार के बड़े-बड़े दावे धरातल पर उतर नहीं सके। फलस्वरूप देशी पान का पत्ता आज महफ़िल में चारचांद लगाने में पीछे होता जा रहा है। पान के नाम पर बेचे जाने वाले गुटका जो कैंसर का घातक रोग उत्पन्न कर रहा है, वही बाजार के चाक- चौराहों पर छाया हुआ है। कुछ चौरसिया समाज के लोग भी गुटका उद्योग में शामिल होकर देखते - देखते खरबपतियों में शुमार हो गए और अपनी रोज़गार को चलाने के लिए चौरसिया समाज के नेता बन गए। क्योंकि पान दुकान लाईन में चौरसिया लोग ही ज़्यादातर शामिल हैं।
पान कोई गुटका नहीं है। पान एक परंपरागत फसल है और पान पाइपरेसी कुल का पौधा है। यह तांबूली या नागवल्ली नामक लता का पत्ता है। भारत में पान की अलग ही अहमिय है। वैसे तो इसका सेवन केवल एक शौक के तौर पे किया जाता है। पर, पान का इस्तेमाल भारत में धार्मिक पूजा- पाठ व सभी सांस्कृतिक कार्यों में किया जाता है। भारत के लगभग सभी राज्यों में इसकी खेती की जाती है। कई स्थानों में लोग तो इसको अपने घरों में भी उगाते हैं।
पान सिर्फ भारत में ही नहीं खाया जाता बल्कि भारतीय पान के कद्रदान दुनिया के 29 देश हैं, जहां इसका निर्यात किया जाता है। जर्मनी, फ्रांस तथा हांगकांग ऎसे देश हैं जहां पान निर्यात हो रहा है। पिछले आंकड़ों के अनुसार, फ्रांस में करीब डेढ़ टन, जर्मनी में करीब दो टन तथा हांगकांग में पांच सौ किलो का निर्यात हुआ।
खाड़ी के देशों में भी भारतीय पान काफी लोकप्रिय हैं। कतर, सउदी अरब तथा संयुक्त अरब अमीरात में भी बड़ी मात्रा में पान भेजा जाता है। तंजानिया लोग भी भारतीय पान खाते हैं। हालांकि वहां निर्यात काफी कम होता है। मलेशिया, मालद्वीप, नेपाल, नाइजेरिया, ओमान, लेबनान, आस्ट्रेलिया, पुर्तगाल और अमेरिका में भी भारतीय पान जाता है।
पान खाने से मुंह में निकलने वाला तरल पदार्थ भोजन पाचन में सहायता करता है। भारत में पौराणिक कथाओं के अनुसार इसे उपचार में लिया जाता था। चोट लगने पर इसका लेप बनाकर पट्टी की जाती थी। शोध कर्ताओं के अनुसार इसका फायदा कामोतेजक में भी मिलता है। पान के पत्तो को उबाल के दोपहर के वक़्त पीने से शरीर की दुर्गंध समाप्त हो जाती है। पान के पत्तो को पीस कर घाव पर लगाने से घाव जल्दी से ठीक हो जाता है। मुँह में छाले हो जाने पर पान के पत्तो को चबाएं और पानी से कुल्ला कर लेें।ऐसे करने से 1-2 दिन में मुँह में छाले ख़त्म हो जायंगे। पान के पत्तो को चबाने और उबाल के उसके पानी से गलाला करे ऐसे करने से मुँह की बदबू समाप्त हो जाएगी। पान के पत्तो को अचे तरह से उबाले और उसको अपने मुहांसे पे लगाए आपके मुहांसे दूर हो जाएँगे। पान के पत्तो को चबाने से ओरल कैंसर जैसे बीमारी से बचा जा सकता है। भारत में पान की किस्में अलग अलग राज्यों में अलग प्रकार के होते हैं। भारत में पान की लगभग 100-500 किस्में है। इसकी किस्मों में बढ़ोतरी इसलिए हुई है, क्योंकि एक ही किस्म को भिन्न-भिन्न इलाकों में अलग अलग नामों से जाना जाता है।
पान में मिलने वाले तत्व हैं, फास्फोरस (Phosphorus)0.130.61%पौटेशियम (Potassium)1.836%कैल्शियम (Calcium)0.581.3%मैग्नीशियम (Magnesium)0.550.75%कॉपर (Copper)20-27 P.P.M.–जिंक (Zinc)30-35 P.P.M.–शर्करा (Sugar)0.31-40 /g–कीनौलिक यौगिक (Kinetic compound)6.2-25.3 /g.
पान में पाये जाने वाले बिटामिनों में ए,बी,सी (A,B,C) प्रमुख है। पान एक उष्ण कटिबंधीय पौधा है तथा इसके पैदावार के लिए अनुकूल परिस्थितियां आवश्यक है। इसकी बढ़वार नम, ठंडे व छायादार वातावरण में अच्छी होती है। इसे कृत्रिम मंडप के अंदर उगाया जाता है जिसे बोलचाल की भाषा में बरेजा या बरेठा कहते हैं। पान की खेती शुष्क उत्तरी-पश्चिमी भाग को छोड़कर पूरे भारतवर्ष में की जाती है। इसकी खेती के लिए उपयुक्त तापमान 15-400 से., आर्द्रता 40-80% एवं वर्षा प्रतिवर्ष 2250-4750 मि.मी. होनी चाहिए। कम वर्षा (1500-1700 मि.मी.) वाले क्षेत्रों में इसकी खेती के लिए हल्की एवं बार-बार सिंचाई (गर्मी में प्रतिदिन एवं जाड़े में 3-4 दिनों के अंतराल पर) आवश्यक है।
सबसे पहले अपने ज़मीन की जांच करा लें। खेत की प्रथम जुताई अप्रैल-मई महीने में मिट्टी पलटने वाले हल से कर देनी चाहिए ताकि सूर्य की कड़ी धूप से मिट्टी में उपस्थित हानिकारक कीड़े-मकोड़े के अंडे, लारवा, प्यूपा मर जाएं तथा मिट्टीजनित फफूंद/जीवाणु के बीजाणु, सूत्रकृमि एवं खर-पतवार नष्ट हो जाए। देशी हल से अंतिम जुलाई करके मिट्टी को भुरभुरी कर देनी चाहिए।
पान की खेती बरेजा बनाकर की जाती है क्योंकि यह एक लतादार पत्ते की खेती होती है। जिस जमीन में बरेजा बनाया जाये उसका ढाल सही होना चाहिए जिससे किसी भी प्रकार का पानी उसमें रुक न सके। जिस जगह भी आप बरेजा बनाये वहां किसी तालाब की काली मिटटी की मोटी परत नीचे दाल दें। भारत में बेल हर तरह की ज़मीन में लगाई जा सकती है। बरेजा का निर्माण करने के लिए जगह के हिसाब से बांस भी काट लें ताकि आपको बेल को सहारा देने के लिए मजबूत बरेजा बन सके। जिस भी स्थान पर बरेजा बनाना होता है पहले उस स्थान को नाप लें। उसके बाद चूने से एक सीधी लकीर खींचकर इन लकीरों पर एक मीटर के अंतराल पर लम्बे बांस वहाँ गाड़ दें। बॉस से एक छपर
तैयार कर लें फिर उसको रस्सी से बाँध कर मजबूत कर लें। छपर बनने के बाद उसके उपर पुवाल या फिर सुखी घास डाल दें। बरेजा बनाते समय ध्यान दिया जाना चाहिए की उसकी दिशा ठीक रहे और आने वाला तूफ़ान इसको क्षतिग्रस्त न कर सके। गर्मी में लू से बचाव करें और सर्दी के समय पाले से भी इसका बचाव करें।
पान की बेल को अधिक जल की आवश्यकता होती है। इसमें टपक विधि से सिंचाई की जानी चाहिए। पान की रोपाई के 10 दिन तक रोजाना 3 से 4 बार मिटटी के घड़े से पानी पटाना चाहिए। इसमें मौसम के अनुसार सिंचाई करनी चाहिए।
पान में हमेशा रोग लगने की संभावना बनी रहती है। पदगलन रोग: यह रोग बीज और जमीन में फफूंद लगने से होता है. यह जमीन की सतह पर बेलों के तनों को प्रभावित करता है, जिस से बेल सड़नी शुरू हो जाती है और मुरझा कर खत्म हो जाती है. पत्तियां भी हलके पीले रंग की हो कर गिरने लगती हैं. यह रोग सर्दियों में ज्यादा असर करता है. इसकी रोकथाम के लिए पानी का निकास बहुत अच्छा होना चाहिए. जमीन पर गिरी पान की बेलों को जमीन से हटा देना चाहिए. इस रोग से बचने के लिए 1 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर 30-40 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद में मिला कर 1 हफ्ते बाद जमीन की तैयारी करते वक्त खेत में मिलाना चाहिए.
जड़ सड़न रोग: इस की वजह राइजोप्टोनिया नामक फफूंद है. यह जमीन से पैदा होने वाला रोग है यदि जमीन को स्वस्थ और साफसुथरा रखा जाए तो इस रोग का खतरा बहुत कम होता है. इस रोग से बचाव के लिए खड़ी फसल में कार्बेंडाजिम 3 फीसदी या मैंकोजेब 0.2 फीसदी का महीने में 1 बार छिड़काव करें.
एंथ्रेक्नोज रोग: यह रोग कोलेरोट्राइकेन केपसीसी नामक फफूंद से होता है. पत्तियों पर इस से धंसे हुए अनियमित टेढ़ेमेढे़ गहरे भूरे रंग के धब्बे बनते हैं. पत्तियों के किनारे से ही इस रोग की शुरुआत होती है और आखिर में पत्ती का ज्यादातर हिस्सा काला पड़ने लगता है. यह रोग बरसात में ज्यादा होता है. इस की रोकथाम के लिए मैंकोजेब 3 फीसदी का छिड़काव बरसात में 10-15 दिनों पर करना चाहिए.
तना कैंसर: लंबाई में यह भूरे रंग के धब्बे के रूप में तने पर दिखाई देता है. इस के प्रभाव से तना फट जाता है. इस की रोकथाम के लिए 150 ग्राम प्लांटो बाइसिन व 150 ग्राम कापर सल्फेट का घोल 600 लीटर पानी में मिला कर छिड़काव करना चाहिए.
जड़ों में गांठें बनना यह रोग मलोयडोगायनी नामक सूत्रकृमि द्वारा फैलता है. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में इस का प्रभाव ज्यादा देखा गया है. इस रोग से बेलें कम बढ़ती हैं और धीरे धीरे पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं. बेलों के सिरे मुरझा जाते हैं. ऐसी बेलों पर छोटी छोटी गांठें बनती हैं. जिस वजह से पौधों को पोषक तत्त्व कम मिलते हैं और पौधे छोटे ही रह जाते हैं. इस की रोकथाम के लिए नीम की खली की 15-20 किलोग्राम मात्रा प्रति 100 मीटर की दर से 1 साल तक इस्तेमाल करें.
पान तुड़ाई करते समय ध्यान दें की पत्तो को दंती के साथ ही तोडा जाये इससे वो जल्दी ख़राब नहीं होते। पुरे फसल की तुड़ाई एक समय अंतराल में हो जानी चाहिए।
पैकिंग के लिए बांस से बनी टोकरी का उपयोग करना चाहिए व उसमें 100 या 200 पान के बंडलों को अलग अलग करके रखना चाहिए। इससे उसकी गुडवत्ता बरक़रार रहती है। या आप तुड़ाई के दौरान किसी कपडे को गीला करके उसकी नमी में पत्तों को रख सकते हैं इससे भी उसकी गुद्वत्ता बनी रहे
बनारस और पुरानी दिल्ली का नया बांस विश्व प्रसिद्ध पान मंडी है। यहाँ प्रत्येक दिन ट्रांसपोर्ट के द्वारा पान का आयात-निर्यात किया जाता है।