भारतीय स्वाभिमान का प्रतीक है राष्ट्रीय ध्वज, जानें झंडे का पूरा इतिहास

नोएडा। कल 26 जनवरी 2020 को गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय ध्वज पूरे देश में फहराया जायेगा. आन, बान और शान के प्रतीक राष्ट्रीय ध्वज हमारे देश भारत वर्ष का गौरव है। यह पूरे देश के लिए स्वाभिमान का आदर्श है। आइए, हम भारतीय झंडे का इतिहास जानते हैं :-



किसी भी देश का राष्ट्रीय ध्वज उसकी पहचान ही नहीं, बल्कि उसके इतिहास और विचार को भी दर्शाता है. दुनिया भर में झंडे का इस्तेमाल प्राचीन काल से हो रहा है. जब राष्ट्र का निर्माण भी नहीं हुआ था, तब झंडे का इस्तेमाल कबीलाई समाज के  लोग किया करते थे. कबीले के नेता या लोग उस कबीले के प्रति अपनी निष्ठा या वफादारी के प्रमाण स्वरूप अपने घरों के बाहर झंडा लगाया करते थे. जब लोग कबीलाई जीवन व्यतीत करते थे, तब वे आपस में लड़ते भी थे. लोगों को ऐसे प्रतीक की ज़रूरत महसूस हुई, जो कबीले की पहचान बने. लड़ाई में पराजित कबीले के क्षेत्र में विजेता कबीला अपने झंडे लगा देता था. भारत में झंडे का इतिहास ऋग्वेद काल से शुरू होता है, जब धूमकेतु झंडे का इस्तेमाल होता था. रामायण में भी शहर, शिविर, रथयात्रा और रण क्षेत्र के बारे में झंडे का ज़िक्र मिलता है. रामायण में निषादराज गुह की नावों में स्वास्तिक ध्वज, महाराजा जनक का सीरध्वज और उनके भाई के कुशध्वज का वर्णन है. महाभारत काल में तो ध्वज का भरपूर विवरण है. हर योद्धा का अलग-अलग झंडा था. समय के साथ झंडे का रिश्ता सेना से जुड़ गया. जब जनसंख्या बढ़ने लगी और राष्ट्र का उदय हुआ, तब झंडा राष्ट्र का प्रतीक बन गया. हर देश का अपना झंडा होना अनिवार्य हो गया. माना यह जाता है कि डेनमार्क दुनिया का पहला देश है, जिसने सबसे पहले अपना राष्ट्रीय ध्वज बनाया.



यह ध्वज आज़ादी और कॉमरेडशिप का संदेश देगा. यह संदेश कि भारत विश्व के सभी देशों के साथ मित्रता करना चाहता है और उन सभी देशों की मदद करना चाहता है, जो ग़ुलामी की ज़ंजीर से आज़ाद होने की इच्छा रखते हैं.


– पंडित जवाहर लाल नेहरू



आज दुनिया के हर देश का अपना ध्वज है, जिसे संप्रभुता का प्रतीक माना जाता है. भारत का राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा कहलाता है, जिसे पिंगली वैंकैयानंद ने बनाया. भारतीय राष्ट्रीय ध्वज में तीन रंग की पट्टियां हैं. सबसे ऊपर केसरिया, बीच में स़फेद और नीचे गहरे हरे रंग की पट्टी है. स़फेद पट्टी के बीच में गहरे नीले रंग का एक चक्र है, जिसे अशोक स्तंभ से लिया गया है. इसमें 24 तीलियां हैं. ध्वज की लंबाई और चौड़ाई का अनुपात 3:2 है. 15 अगस्त, 1947 से पहले तिरंगे को 22 जुलाई, 1947 को भारतीय संविधान सभा की बैठक के दौरान अपनाया गया. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारत के प्रतीक के रूप में अलग- अलग झंडों का प्रयोग हुआ. आज भारत का जो तिरंगा है, वह अचानक ही किसी परिकल्पना का परिणाम नहीं है. हमारा राष्ट्रीय ध्वज आज़ादी की लड़ाई के दौरान विकसित हुआ है. 22 जुलाई, 1947 को संविधान सभा ने इसे स्वतंत्र भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया. स्वतंत्रता मिलने के बाद इसके रंग और उनका महत्व बना रहा. केवल ध्वज में चलते हुए चरखे के स्थान पर सम्राट अशोक के धर्मचक्र को दिखाया गया. इस प्रकार कांग्रेस पार्टी का तिरंगा ध्वज अंतत: स्वतंत्र भारत का तिरंगा ध्वज बना. यह ध्वज भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का चिन्ह भी था. हमारे राष्ट्रीय ध्वज के विकास में कुछ ऐतिहासिक पड़ाव इस प्रकार हैं:



यह ध्वज हमें बताता है कि जब भी कोई क़दम बढ़ाएं, हमेशा सतर्क रहें. एक मुक्त, स्थिति के अनुरूप ढलने वाले, संवेदनशील, मर्यादित और लोकतांत्रिक समाज के लिए काम करें, जिसमें ईसाई, सिख, मुस्लिम, हिंदू और बौद्ध धर्म के लोग सुरक्षित आश्रय पाएं.


– डॉ. एस राधाकृष्णन



सबसे पहले 1904 में स्वामी विवेकानंद की शिष्या सिस्टर निवेदिता ने एक झंडा प्रस्तुत किया. लाल और पीले रंग के इस झंडे में वज्र और कमल के फूल भी थे. लाल रंग स्वतंत्रता संग्राम का तो पीला विजयी होने का प्रतीक था. वज्र शक्ति को और कमल शुद्धता को दर्शाता था. झंडे पर बंगाल की पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास आनंदमठ के गीत के शीर्षक वंदे मातरम को लिखवाया गया. इस झंडे को कांग्रेस के  वार्षिक अधिवेशन में दिसंबर 1906 में प्रदर्शित किया गया. उस समय भारत का कोई एक झंडा नहीं हुआ करता था तो हर कोई अपने सुझाव दे रहा था. उन्हीं में से सचिंद्र नाथ बोस का तिरंगा एक था, जो उन्होंने 7 अगस्त, 1906 को बंगाल के विभाजन के विरोध में पारसी बागान चौक (ग्रीन पार्क) कोलकाता में फहराया था. इस झंडे के सबसे ऊपर संतरी रंग, बीच में पीला और सबसे नीचे हरा रंग था. संतरी रंग की पट्टी में 8 आधे खिले हुए कमल के  फूल थे. सबसे नीचे सूरज और चंद्रमा था और बीच में देवनागरी में वंदे मातरम लिखा हुआ था.



इस राष्ट्रीय ध्वज के नीचे खड़े लोगों में राजा और रंक, सामंत और किसान, पुरुष और महिला के बीच सी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं है. मैं निवेदन करती हूं कि सभी खड़े होकर इस ध्वज को सलाम करें.


– सरोजिनी नायडू



उसके बाद भीकाजी कामा ने 22 अगस्त, 1907 को एक और तिरंगा जर्मनी में फ़हराया. इसमें हरा रंग सबसे ऊपर, बीच में केसरिया और सबसे नीचे लाल रंग था. हरा रंग इस्लाम और केसरिया हिंदू एवं बौद्ध धर्म का प्रतीक कहा गया. हरे रंग की पट्टी में आठ कमल थे, जो ब्रिटिश हुक़ूमत के समय भारत के आठ प्रांतों को दर्शाते थे. लाल रंग की पट्टी पर चांद और सूरज बने हुए थे. इस तिरंगे को भीकाजी के साथ वीर सावरकर और श्याम जी कृष्ण वर्मा ने मिलकर बनाया था. 1917 में एक और झंडा आया, जिसे डॉ. एनी बेसेंट और लोकमान्य तिलक ने होम रूल लीग के आंदोलन के दौरान फहराया. इस ध्वज में एक के बाद एक 5 लाल और 4 हरी क्षैतिज पट्टियां थीं और सप्तऋषि को दर्शाने के लिए सात सितारे बने थे. इस झंडे के बाएं और ऊपरी किनारे पर यूनियन जैक था. साथ ही एक कोने में स़फेद अर्द्ध चंद्र और सितारा भी था. इसी तरह गदर पार्टी ने अपना झंडा निकाला और बाल गंगाधर तिलक एवं एनी बेसेंट ने मिलकर अपने ध्वज का इस्तेमाल किया. यह झंडा सबको मान्य था, पर इससे जो राजनीतिक संदेश मिलता था, वह ज़्यादा लोकप्रिय नहीं था.



मैं यह कहना चाहूंगा कि भारत देश के झंडे में यदि राष्ट्रीय चिन्ह के तौर पर चरखा न हो तो मैं उसे सलाम नहीं करूंगा. आप जानते हैं कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज का ख्याल सबसे पहले मेरे मस्तिष्क में आया और मैं भारत के राष्ट्रीय ध्वज की कल्पना रखे के बिना नहीं कर सकता.


– महात्मा गांधी



1916 में पहली बार कांग्रेस ने एक ध्वज का निर्माण करने का फ़ैसला किया. यह कार्य आंध्र प्रदेश के  मछलीपट्टनम के लेखक पिंगली वैंकैया को सौंपा गया. महात्मा गांधी ने उन्हें ध्वज में चरखा इस्तेमाल करने की हिदायत दी. वैंकैया ने खादी का ध्वज बनाया और उसमें लाल व हरे रंग की पट्टियों पर चरखा लगाया. महात्मा गांधी का मानना था कि लाल व हरा रंग तो हिंदू और मुस्लिम समुदायों का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए सबसे ऊपर सफ़ेद रंग भी जोड़ा जाए. इस ध्वज को 1917 में होम रूल आंदोलन के दौरान अपनाया गया. इसे कांग्रेस के अहमदाबाद सम्मेलन में फ़हराया गया, किंतु यह झंडा कांग्रेस का आधिकारिक झंडा नहीं बन सका. बहुत से लोग झंडे की सांप्रदायिक व्याख्या से ना़खुश थे. कई संगठनों ने राय दी कि गेहुंआ रंग हिंदू संन्यासी और मुस्लिम फ़कीर दोनों का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए झंडे में यह रंग होना चाहिए. इसके  बाद सिख भी झंडे में पीले रंग को अपनाने की जिद करने लगे. 1931 में कांग्रेस की कार्यकरिणी ने सात सदस्यीय कमेटी का गठन करने का निर्णय किया, जिसमें सरदार पटेल, नेहरू, मौलाना आज़ाद, मास्टर तारा सिंह, काका कालेलकर, डॉ. हार्डिकर एवं पट्टाभी सीतारमैया जैसे दिग्गज शामिल थे. इस कमेटी ने केसरिया रंग के झंडे का निर्माण किया, जिसमें ऊपर चरखा बना हुआ था.


राष्ट्रीय ध्वज के इतिहास में 1931 एक यादगार वर्ष है. तिरंगे ध्वज को हमारे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया. 1931 का ध्वज सही मायने में तिरंगे का पूर्वज है. 1931 में ही कराची में फिर कमेटी बैठी और पिंगली वैंकैया को फिर कमान सौंपी गई. इस झंडे में केसरिया, स़फेद और हरे रंग की पट्टी थी और मध्य में चलता हुआ चरखा था. इस झंडे को अपनाने के दौरान यह स्पष्ट रूप से बताया गया कि इसका कोई सांप्रदायिक महत्व नहीं है. इस ध्वज को 1931 में गैर आधिकारिक रूप से अपनाया गया. स्वतंत्रता प्राप्ति के 24 दिनों पहले आनन-फ़ानन में एक कमेटी गठित की गई, जिसकी अध्यक्षता डॉ. राजेंद्र प्रसाद को दी गई. इस कमेटी के सदस्य सी राजगोपालाचारी, सरोजिनी नायडू, अबुल कलाम आज़ाद, के एम मुंशी एवं बी आर अंबेडकर थे. इस झंडे को स्वीकृति मिली और यही झंडा आज का तिरंगा बना.


26 जनवरी, 2002 को भारतीय ध्वज संहिता में संशोधन किया गया और स्वतंत्रता के कई वर्षों बाद भारतीय नागरिकों को अपने घरों, कार्यालयों और फैक्ट्रियों में न केवल राष्ट्रीय दिवसों पर, बल्कि किसी भी दिन बिना किसी रुकावट के तिरंगा फहराने की अनुमति मिल गई. अब भारतीय नागरिक राष्ट्रीय झंडे को शान से कहीं भी और किसी भी समय फहरा सकते हैं. बशर्ते, वे ध्वज संहिता का कठोरतापूर्वक पालन करें और तिरंगे की शान में कोई कमी न आने दें. सुविधा की दृष्टि से भारतीय ध्वज संहिता, 2002 को तीन भागों में बांटा गया है. संहिता के  पहले भाग में राष्ट्रीय ध्वज का सामान्य विवरण है. दूसरे भाग में जनता, निजी संगठनों, शैक्षिक संस्थानों आदि के सदस्यों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज के प्रदर्शन के विषय में बताया गया है. संहिता का तीसरा भाग केंद्रीय और राज्य सरकारों, उनके संगठनों एवं अभिकरणों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज के प्रदर्शन के विषय में जानकारी देता है.


राष्ट्रीय ध्वज को शैक्षिक संस्थानों (विद्यालयों, महाविद्यालयों, खेल परिसरों, स्काउट शिविरों आदि) में सम्मान देने की प्रेरणा देने के लिए फहराया जा सकता है. विद्यालयों में ध्वजारोहण में निष्ठा की एक शपथ शामिल की गई है. किसी सार्वजनिक, निजी संगठन या एक शैक्षिक संस्थान के सदस्य द्वारा राष्ट्रीय ध्वज का आरोहण/प्रदर्शन सभी दिनों, अवसरों और आयोजनों पर अथवा राष्ट्रीय ध्वज के मान-सम्मान और प्रतिष्ठा के अनुरूप अवसरों पर किया जा सकता है. नई संहिता की धारा 2 में सभी नागरिकों को अपने घरों-परिसरों में ध्वज फहराने का अधिकार देना स्वीकार किया गया है.


इस ध्वज को सांप्रदायिक लाभ, पर्दे या वस्त्रों के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. जहां तक संभव हो, इसे मौसम से प्रभावित हुए बिना सूर्योदय से सूर्यास्त तक फहराया जाना चाहिए. इस ध्वज को आशयपूर्वक भूमि, फर्श या पानी से स्पर्श नहीं कराया जाना चाहिए. इसे वाहनों के हुड, ऊपर और बगल या पीछे, रेलों, नावों या वायुयान पर लपेटा नहीं जा सकता. किसी अन्य ध्वज या ध्वज पट्ट को हमारे ध्वज से ऊंचे स्थान पर लगाया नहीं जा सकता है.