अदृश्य स्याही का रहस्य और अग्रसेन महाराज का अग्र भागवत



 आमगांव यह महाराष्ट्र के गोंदिया जिले की एक छोटी सी तहसील, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सीमा से जुडी हुई. इस गांव के ‘रामगोपाल अग्रवाल’, सराफा व्यापारी हैं. घर से ही सोना, चाँदी का व्यापार करते हैं. रामगोपाल जी, ‘बेदिल’ नाम से जाने जाते हैं. एक दिन अचानक उनके मन में आया, ‘आसाम के दक्षिण में स्थित ‘ब्रम्हकुंड’ में स्नान करने जाना हैं’. अब उनके मन में ‘ब्रम्हकुंड’ ही क्यूँ आया, इसका कोई कारण उनके पास नहीं था. यह ब्रम्हकुंड (ब्रह्मा सरोवर), ‘परशुराम कुंड’ के नाम से भी जाना जाता हैं. आसाम सीमा पर स्थित यह कुंड, प्रशासनिक दृष्टि से अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले में आता हैं. मकर संक्रांति के दिन यहाँ भव्य मेला लगता हैं. 


‘ब्रम्ह्कुंड’ यह स्थान अग्रवाल समाज के आदि पुरुष / प्रथम पुरुष भगवान अग्रसेन महाराज का ससुराल माना जाता हैं. भगवान अग्रसेन महाराज की पत्नी, माधवी देवी इस नागलोक की राजकन्या थी. उनका विवाह अग्रसेन महाराज जी के साथ इसी ब्रम्ह्कुंड के तट पर हुआ था, ऐसा बताया जाता हैं.


हो सकता हैं, इसी कारण से रामगोपाल जी अग्रवाल ‘बेदिल’ को इच्छा हुई होगी ब्रम्ह्कुंड दर्शन की..! वे अपने ४ – ५ मित्र – सहयोगियों के साथ ब्रम्ह्कुंड पहुंच गए. दुसरे दिन कुंड पर स्नान करने जाना निश्चित हुआ. रात को अग्रवाल जी को सपने में दिखा कि, ‘ब्रम्ह्सरोवर के तट पर एक वटवृक्ष हैं, उसकी छाया में एक साधू बैठे हैं. इन्ही साधू के पास, अग्रवाल जी को जो चाहिये वह मिल जायेगा..!’


दुसरे दिन सुबह राम गोपाल जी ब्रम्ह्सरोवर के तट पर गये तो उनको एक बड़ा सा वटवृक्ष दिखाई दिया और साथ ही दिखाई दिए, लंबी दाढ़ी और जटाओं वाले वो साधू महाराज भी. रामगोपाल जी ने उन्हें प्रणाम किया तो साधू महाराज जी ने अच्छे से कपडे में लिपटी हुई एक चीज उन्हें दी और कहा, “जाओं, इसे ले जाओं, कल्याण होगा तुम्हारा.”


वह दिन था, ९ अगस्त, १९९१. 


दिखने में बहुत बड़ी, पर वजन में हलकी वह पोटली जैसी वस्तु लेकर रामगोपाल जी अपने स्थान पर आएं, जहां वे रुके थे. उन्होंने वो पोटली खोलकर देखी, तो अंदर साफ़ – सुथरे ‘भूर्जपत्र’ अच्छे सलीके से बांधकर रखे थे. इन पर कुछ भी नहीं लिखा था. एकदम कोरे..! इन को भूर्जपत्र कहते हैं, इसकी रामगोपाल जी को जानकारी भी नहीं थी. अब इसका क्या करे..? उनको कुछ समझ नहीं आ रहा था. लेकिन साधू महाराज का प्रसाद मानकर वह उसे अपने गांव, आमगांव, लेकर आये. लगभग ३० ग्राम वजन की उस पोटली में ४३१ खाली (कोरे) भूर्जपत्र थे. 


बालाघाट के पास ‘गुलालपुरा’ गांव में रामगोपाल जी के गुरु रहते थे. रामगोपाल जी ने अपने गुरु को वह पोटली दिखायी और पूछा, “अब मैं इसका क्या करू..?” गुरु ने जवाब दिया, “तुम्हे ये पोटली और उसके अंदर के ये भूर्जपत्र काम के नहीं लगते हों, तो उन्हें पानी में विसर्जित कर दो.” अब रामगोपाल जी पेशोपेश में पड गए. रख भी नहीं सकते और फेंक भी नहीं सकते..! उन्होंने उन भुर्जपत्रों को अपने पूजाघर में रख दिया. 


कुछ दिन बीत गए. एक दिन पूजा करते समय सबसे ऊपर रखे भूर्जपत्र पर पानी के कुछ छींटे गिरे, और क्या आश्चर्य..! जहां पर पानी गिरा था, वहां पर कुछ अक्षर उभरकर आये. रामगोपाल जी ने उत्सुकतावश एक पूरा भूर्जपत्र पानी में डुबोकर कुछ देर तक रखा और वह आश्चर्य से देखते ही रह गये..! उस भूर्जपत्र पर लिखा हुआ साफ़ दिखने लगा. अष्टगंध जैसे केसरिया रंग में, स्वच्छ अक्षरों से कुछ लिखा था. कुछ समय बाद जैसे ही पानी सूख गया, अक्षर भी गायब हो गए. 


अब रामगोपाल जी ने सभी ४३१ भुर्जपत्रों को पानी में भिगोकर, सुखने से पहले उन पर दिख रहे अक्षरों को लिखने का प्रयास किया. यह लेखन देवनागरी लिपि में और संस्कृत भाषा में लिखा था. यह काम कुछ वर्षों तक चला. जब इस साहित्य को संस्कृत के विशेषज्ञों को दिखाया गया, तब समझ में आया, की भूर्जपत्र पर अदृश्य स्याही से लिखा हुआ यह ग्रंथ, अग्रसेन महाराज जी का ‘अग्र भागवत’ नाम का चरित्र हैं. 


लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व जैमिनी ऋषि ने ‘जयभारत’ नाम का एक बड़ा ग्रंथ लिखा था. उसका एक हिस्सा था, यह ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ. पांडव वंश में परीक्षित राजा का बेटा था, जनमेजय. इस जनमेजय को लोक साधना, धर्म आदि विषयों में जानकारी देने हेतू जैमिनी ऋषि ने इस ग्रंथ का लेखन किया था, ऐसा माना जाता हैं.


रामगोपाल जी को मिले हुए इस ‘अग्र भागवत’ ग्रंथ की अग्रवाल समाज में बहुत चर्चा हुई. इस ग्रंथ का अच्छा स्वागत हुआ. ग्रंथ के भूर्जपत्र अनेकों बार पानी में डुबोकर उस पर लिखे गए श्लोक, लोगों को दिखाए गए. इस ग्रंथ की जानकारी इतनी फैली की इंग्लैंड के प्रख्यात उद्योगपति लक्ष्मी मित्तल जी ने कुछ करोड़ रुपयों में यह ग्रंथ खरीदने की बात की. यह सुनकर / देखकर अग्रवाल समाज के कुछ लोग साथ आये और उन्होंने नागपुर के जाने माने संस्कृत पंडित रामभाऊ पुजारी जी के सहयोग से एक ट्रस्ट स्थापित किया. इससे ग्रंथ की सुरक्षा तो हो गयी. आज यह ग्रंथ, नागपुर में ‘अग्रविश्व ट्रस्ट’ में सुरक्षित रखा गया हैं. लगभग १८ भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद भी प्रकाशित हुआ हैं.  


रामभाऊ पुजारी जी की सलाह से जब उन भुर्जपत्रों की ‘कार्बन डेटिंग’ की गयी, तो वह भूर्जपत्र लगभग दो हजार वर्ष पुराने निकले. 


इस कहानी में, बेदिल जी को आया स्वप्न, वो साधू महाराज, यह सब ‘श्रध्दा’ के विषय बाजू में रखे जाय तो भी कुछ प्रश्न तो मन को कुरेदते हैं ही. जैसे, हजारों वर्ष पूर्व भुर्जपत्रों पर अदृश्य स्याही से लिखने की तकनीक किसकी थी..? इसका उपयोग कैसे किया जाता था..? कहां उपयोग होता था, इस तकनीक का..? 


भारत में लिखित साहित्य की परंपरा अति प्राचीन हैं. ताम्रपत्र, चर्मपत्र, ताडपत्र, भूर्जपत्र... आदि लेखन में उपयोगी साधन थे. 


मराठी विश्वकोष में भूर्जपत्र की जानकारी दी गयी हैं, जो इस प्रकार हैं –
“भूर्जपत्र यह ‘भूर्ज’ नाम के पेड़ की छाल से बनाया जाता था. यह वुक्ष, ‘बेट्युला’ प्रजाति के हैं और हिमालय में, विशेषतः काश्मीर के हिमालय में, पाए जाते हैं. इस वृक्ष के छाल का गुदा निकालकर, उसे सुखाकर, फिर उसे तेल लगा कर उसे चिकना बनाया जाता था. उसके लंबे रोल बनाकर, उनको समान आकार का बनाया जाता था. उस पर विशेष स्याही से लिखा जाता था. फिर उसको छेद कर के, एक मजबूत धागे से बांधकर, उसकी पुस्तक / ग्रंथ बनाया जाता था. यह भूर्जपत्र, उनकी गुणवत्ता के आधार पर दो – ढाई हजार वर्षों तक अच्छे रहते थे.”


भूर्जपत्र पर लिखने के लिये प्राचीन काल से स्याही का उपयोग किया जाता था. भारत में, ईसा के पूर्व, लगभग ढाई हजार वर्षों से स्याही का प्रयोग किया जाता था, इसके अनेक प्रमाण मिले हैं. लेकिन यह कब से प्रयोग में आयी, यह अज्ञात ही हैं. भारत पर हुए अनेक आक्रमणों के चलते यहाँ का ज्ञान बड़े पैमाने पर नष्ट हुआ हैं. 


परन्तु स्याही तैयार करने के प्राचीन तरीके थे, कुछ पध्दतियां थी, जिनकी जानकारी मिली हैं. आम तौर पर ‘काली स्याही’ का ही प्रयोग सब दूर होता था. चीन में मिले प्रमाण भी ‘काली स्याही’ की ओर ही इंगित करते हैं. केवल कुछ ग्रंथों में गेरू से बनायी गयी केसरियां रंग की स्याही का उल्लेख आता हैं.


मराठी विश्वकोष में स्याही की जानकारी देते हुए लिखा हैं – ‘भारत में दो प्रकार के स्याही का उपयोग किया जाता था. कच्चे स्याही से व्यापार का आय-व्यय, हिसाब लिखा जाता था तो पक्की स्याही से ग्रंथ लिखे जाते थे. पीपल के पेड़ से निकाले हुए गोंद को पीसकर, उबालकर रखा जाता था. फिर तिल के तेल का काजल तैयार कर उस काजल को कपडे में लपेटकर, इस गोंद के पानी में उस कपडे को बहुत देर तक घुमाते थे. और वह गोंद, स्याही बन जाता था, काले रंग की..!’


भूर्जपत्र पर लिखने वाली स्याही अलग प्रकार की रहती थी. बादाम के छिलके और जलाये हुए चावल को इकठ्ठा कर के गोमूत्र में उबालते थे. काले स्याही से लिखा हुआ, सबसे पुराना उपलब्ध साहित्य तीसरे शताब्दी का हैं. 


आश्चर्य इस बात का हैं, की जो भी स्याही बनाने की विधि उपलब्ध हैं, उन सब से पानी में घुलने वाली स्याही बनती हैं. जब की इस ‘अग्र भागवत’ की स्याही, भूर्जपत्र पर पानी डालने से दिखती हैं. पानी से मिटती नहीं. उलटें, पानी सूखने पर स्याही भी अदृश्य हो जाती हैं. इस का अर्थ यह हुआ, की कम से कम दो – ढाई हजार वर्ष पूर्व हमारे देश में अदृश्य स्याही से लिखने का तंत्र विकसित था. यह तंत्र विकसित करते समय अनेक अनुसंधान हुए होंगे. अनेक प्रकार के रसायनों का इसमें उपयोग किया गया होगा. इसके लिए अनेक प्रकार के परीक्षण करने पड़े होंगे. लेकिन दुर्भाग्य से इसकी कोई भी जानकारी आज उपलब्ध नहीं हैं. उपलब्ध हैं, तो अदृश्य स्याही से लिखा हुआ ‘अग्र भागवत’ यह ग्रंथ. लिखावट के उन्नत आविष्कार का जीता जागता प्रमाण..!


कुल मिलाकर, ‘विज्ञान, या यूं कहे, शास्त्रशुध्द विज्ञान, पाश्चिमात्य देशों में ही निर्माण हुआ’ इस मिथक को मानने वालों के लिए ‘अग्र भागवत’ यह अत्यंत आश्चर्य का विषय हैं. किसी समय इस देश में अत्यधिक प्रगत लेखन शास्त्र विकसित था और अपने पास के विशाल ज्ञान भंडार को, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करने की क्षमता इस लेखन शास्त्र में थी, यह अब सिध्द हो चुका हैं..!


भूर्जपत्र - ओढ़ने बिछाने से लेकर लिखने तक के काम आने वाली जलरोधी वस्तु।
चर्चित बख्शाली मेनसक्रिप्ट भोजपत्र पर ही लिखी हुई है। चीन में ६००ई.पू. के खरोष्ठी गान्धारी लिपि में लिखित सैकड़ों पत्र रखे हुये हैं। समय के साथ "लिखित" की प्रतिलिपि तैयार करनी ही पड़ती है और लिपि परिवर्तित होती चली जाती है।
भारत में इन पत्रों पर लेखन स्थायी स्याही से किया जाता रहा जिसे बनाने की भी विशेष विधि होती है। पानी से धुलती नहीं।
प्रस्तुत चित्र शारदा लिपि में लिखे एक भोजपत्र का स्कैन है। किसी प्राचीन लेख में कोई सामग्री जोड़े जाने हेतु प्रथम आवश्यकता उस पत्र में अतिरिक्त लेखन हेतु 'अवकाश' की है, द्वितीय आवश्यकता इस बात की होती है कि आप उस भाषा व लिपि के पूर्ण जानकार हों और पुराने हस्तलेख की नकल 'नटवरलाल' के जैसे कर सकें। यदि नकल करने की आपमें जन्मजात प्रतिभा हो तो भी किसी अप्रचलित प्राचीन लिपि के लेखन कर पाने के लिये बहुत कुछ सीखना व अभ्यास करना पड़ेगा।
तब भी स्मरण रखिये "नकल हमेशा होती है पर बराबरी कभी नहीं" ऐसे ही नहीं कहा जाता है।
जब कभी पत्रों का निरीक्षण विशेषज्ञों द्वारा किया जायेगा आपकी फोर्जरी पकड़ में आ जायेगी। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि किसी 'कृति' की अनेक अनुकृतियाँ कई स्थानों पर होती हैं , यदि किसी एक स्थान की प्रति में कोई गड़बड़ी हो भी या की जाये तो शेष प्रतियाँ अपरिवर्तित ही रहेंगी।
अँगरेजों के पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों का पालन आज भी पूर्ण श्रद्धा एवं भक्ति से हो रहा है।
लगध के याजुष् ज्योतिष की एक प्रति को छोड़ किसी में भी गणित शब्द नहीं है, षड् वेदाङ्गों में भी 'गणित' नहीं है फिर भी बड़ी ही ढिठाई से वह श्लोक लगातार "कोट" होता है।
कल्प तथा ज्योतिष वेदाङ्गों में गणित अनुप्रयुक्त होता ही है।
Mathematics is the queen of Science
पुराने मठों में भोजपत्रों पर लिखित ग्रन्थों का संग्रह आज भी है।
ब्रिटेन ने एसिआ में प्राप्त प्राचीन हस्तलिखित सामग्री जितनी उनको प्राप्त हो सकी उसको अपने अधिकार में कर अपने देश ढोकर ले गये। अब वे भी इनके संरक्षण के उपाय खोज रहे हैं और प्रतिलिपियाँ तैयार करवाने में जुटे हैं
"द हिन्दू" में प्रकाशित वर्ष 2011ई. की वार्ता पढ़ी जा सकती है 


भगवान् विष्णु के लेखाकार चित्रसेन या चित्रगुप्त सम्भवतः गन्धर्व थे , गान्धार प्रदेश की चित्राल घाटी का नाम यही सङ्केत करता है। पहले पहल लिपि चित्रात्मक ही बनी इसलिए तूलिका और चित्र शब्द लेखन के सम्बन्ध में प्रयुक्त होते थे। ऋग्वेद के कुछेक मन्त्रों में भी चित्रलिपि के होने के विषय में स्पष्ट घोष है।
लिपि, अक्षर, लिखित शब्द तब तक निष्प्राण ही होते हैं जब तक प्राणयुक्त न हों अर्थात् उच्चरित न हों । श्वास रहित निर्जीव ही होता है।
आज लेखनी की भी पूजा होती है, उन पूर्वजों को नमस्कार जिन्होंने करोड़ों सार्थक वाक्य लिखे, जिन्हें एक जन्म में पूरा नहीं पढ़ा जा सकता ।
कहते हैं गणेश जी ने अपने एक दाँत को ही लेखनी बना लिया था , इषीक , नरकुल , पक्षियों के पंख, नख, छेनी न जाने किन किन वस्तुओं से लेखन कार्य किया जाता रहा।
फाउण्टेन पेन, छापाखाना, और बॉल-प्वाइण्ट पेन के आविष्कर्ता भी समादरणीय हैं।
जकरबर्गवा किताब पर लिखवाता है, सरवा नाम धरे है। कॉपीबुक जिस पर लिखा जाता है उसे भी अँगरेज 'बुक' ही कहता है और 'कॉपी' का अर्थ नकल करना ही होता है, मतलब अँगरेजों ने लिखना पढ़ना दूसरों से ही लिया है।
 कुछ देश-विदेश के रङ्गबिरङ्गे कलम्ब हैं सबसे महीन लिखाई मित्सुबिशी से ही बनती थी, अब अपने ही लिखे महीन अक्षरों को पढ़ने के लिये लेन्स उठाना पड़ता है, इसलिए सदैव बड़ा बड़ा ही लिखना चाहिए।