व्यंग्य कविता : काम के न काज के, नेता समाज के


  
काम के न काज के, 
नेता समाज के ।
कल तक चोर थे ,
 मंत्री  हैं आज के ।


दाना न पानी है ,
केवल कहानी है ,
कहीं पर चोटा नहीं,
कहीं पर चांनी  है ।
बात बेईमानी  है,
कारण कुछ भी नहीं ,
दंगा फसाद के ।
काम के न काज के,
नेता समाज के ।


भेषभूषा सन्त के,
काम सब हन्त के ,
वर्दी में छिप गये ,
काले माल कन्त के,
कहाँ कानून है ,
सब्जी तेल नून है ,
जहाँ पर थाना है ,
वहीं पर खून है ,
कांहे का डर है , 
साहब का घर है ,
अपराध करने का ,
आठो पहर है ,
बिछा हुआ जाल है,
ताल में ताल है ,
पहना है भेड़िया, 
शेर का खाल है ,
बाप न माई ,
ऊपरी कमाई ,
जनता की हो रही , 
खुबे पिसाई ,
दूध नहीं पानी है,
काम सैतानी है ,
चेहरा जानी जानी है ,
चील गिद्ध बाज के,
काम के न काज के
नेता समाज के।


आज फिर कोई मरा है,
शहर डरा डरा है ,
घाव जो सूखा था ,
हो गया हरा है ,
गले में माला है 
हाथ में भाला है ,
कसमें वो खाते हैं ,
 गीता कुरान के ,
काम के न काज के
नेता समाज के ।
              **  डॉ रामलखन चौरसिया वागीश