महाभारत स्वयं में एक बड़ा विचारधारा है, जिसमें सबके लिए है ज्ञान की बातें

महाभारत में बच्चों के लिए क्या है?
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~


महाभारत पर आयातित विचारधारा का आम आरोप रहा है कि ये तो सत्ता के लिए हुए संघर्ष कि कहानी है। ये पढ़ने कि मेहनत करने के बदले शोर्ट कट में टीवी देखकर महाभारत सीखने की कोशिश से होता है। अक्सर टेलीविजन पर प्रसारण के लिए, या फिल्म कि कहानी जैसा बनाने के लिए महाभारत के जो हिस्से काट दिए जाते हैं, वहीँ महाभारत की सबसे शिक्षाप्रद कहानियां हैं। महाभारत के मुख्य माने जाने वाले चरित्रों का जिक्र शुरू होने से पहले और युद्ध के ख़त्म होने के बाद ही सबसे कम सुनी जाने वाली कहानियां होती हैं। कई बार ऐसा भी होगा कि कहानी तो आपने सुनी होगी, लेकिन आप ये नहीं जानते होंगे कि ये महाभारत की ही कोई कहानी है।


जैसे युद्ध के बाद शांति पर्व में जब भीष्म के पास जाकर युधिष्ठिर राज्य व्यवस्था के बारे में सीख रहे होते हैं तो भीष्म सतयुग कि एक कहानी सुनाते हैं। ये कहानी एक ऊंट कि थी जो अपने पूर्व जन्म में किये पुण्यों के कारण इस जन्म में भी धर्मात्मा था। जंगल में रहने वाले इस ऊंट के पास एक दिन ब्रह्मा पहुंचे और उसे वर देना चाहा। ऊंट ने कहा कि भगवान मेरी गर्दन इतनी लम्बी कर दीजिये कि मैं सौ योजन दूर भी चर सकूँ। खाने कि तलाश में भटकना ना पड़े तो मैं साधना पर और ध्यान दूं। ब्रह्मा ने कहा तथास्तु और ऊंट कि गर्दन लम्बी हो गई। गर्दन लम्बी होने से ऊंट को कहीं इधर उधर जाने कि जरूरत नहीं रही, जब चाहता गर्दन लम्बी करता और कुछ खा लेता।


इधर उधर भटकने कि जरूरत ख़त्म होने से ऊंट आलसी हो गया और एक ही जगह पड़ा रहने लगा। एक दिन वो गर्दन लम्बी कर के इधर उधर खा ही रहा था कि इतने में आंधी आ गई। लम्बी गर्दन सिकोड़ने में समय लगता इसलिए बचने के लिए उसने गर्दन एक गुफा में घुसा ली। जब वो आंधी रुकने का इन्तजार कर रहा था तो एक सियार और सियारनी ने भी उसी गुफा में आंधी से बचकर शरण ली। उन्होंने अपने सामने ही ऊंट कि गर्दन देखी तो फ़ौरन उसपर टूट पड़े! काटे जाने से बचने के लिए ऊंट ने गर्दन समेटने कि कोशिश की, लेकिन जबतक वो पूरी गर्दन समेट पाता उतनी देर में तो सियार सियारनी ने मिलकर उसकी गर्दन ही काट ली !


आलसी ऊंट के मारे जाने की इस कहानी से भीष्म सिखाते हैं कि आलस्य उचित नहीं। अपने कर्मों का निर्वाह करते हुए ही, इन्द्रियों के निग्रह से, मन को इधर उधर भटकने से रोककर, सही दिशा में काम करने पर लगाना चाहिए। अपने कर्तव्यों में से कुछ कम कर के किसी और चीज़ (जो पसंद हो, या करने की इच्छा हो), उसके लिए समय नहीं बचाया जा सकता। ये करीब करीब आत्मघाती तरीका है इस कहानी में भीष्म ने यही सिखाया था। ये इकलौता ऐसा किस्सा हो जो बच्चों को नैतिक शिक्षा देने में काम आ जाए ऐसा भी नहीं है। जैसे पंचतंत्र में मैत्री और नीति की कहानियां हैं वैसी भी कई कहानियां महाभारत के शांति पर्व में मिल जायेंगी।


बच्चों के लायक एक कहानी एक चूहे और बिल्ली कि भी है। कहानी ज्यादा रोचक इसलिए है क्योंकि कहानी में जो पांच पात्र हैं, सभी का नाम भी है। चूहे ने एक बरगद की जड़ में अपना घर बना रखा था और वहीँ डालियों में एक बिल्ली भी रहती थी। पेड़ पर आने वाले पक्षियों के शिकार से बिल्ली का गुजारा होता। वहीँ पास में एक शिकारी भी रहता था जो रोज रात जाल लगा जाता और सुबह फंसे जीवों को बेचने-खाने से अपना गुजारा चलाता। एक रोज शिकारी जब जाल लगाकर गया तो रात में बिल्ली बेचारी उस जाल में फंस गई। बिल्ली को फंसा देखकर चूहा आराम से निकला और बिल्ली को चिढ़ाता, जाल में जो चारा शिकारी ने लगाया था उसे खाने लगा।


बिल्ली के फंस जाने से इलाके पर कब्ज़ा जमाने दूसरे शिकारी जीव आने लगे। मौके पर एक नेवला और एक उल्लू साथ ही पहुंचे और सामने उनके चूहा ही शिकार के रूप में दिखा। ऊपर उल्लू और नीचे नेवले को जब चूहे ने घात लगाए देखा तो वो फंसी हुई बिल्ली के सामने गिड़गिड़ाने लगा। अभी तक वो जिस बिल्ली को चिढ़ा रहा था, फंसा जानकार छेड़ रहा था, उसी से मदद कि गुहार लगाईं। चूहे ने कहा कि अगर अभी वो उसे अपने नीचे छुपा ले तो वो जाल काटकर बिल्ली की बचने में मदद करेगा। बिल्ली तो पहले ही फंसी हुई थी तो शर्त मानने के अलावा कोई विकल्प तो उसके पास था ही नहीं। चुनांचे बिल्ली ने अपने नीचे चूहे को छिपा लिया और चूहा भी जाल कुतरने लगा।


थोड़ी ही देर में जब चूहे का शिकार कर पाने में असमर्थ होकर जब उल्लू और नेवला इधर उधर हुए तो बिल्ली का भी ध्यान गया कि चूहा तो बहुत धीमे धीमे जाल कुतर रहा है। वो चूहे से बोली लगता है अब जान बच जाने पर तुम अपना वादा भूल गए हो! चूहा बोला भाई मैं तेज काम नहीं करने वाला, कोई भी काम समय पर ना किया जाए तो सही फल नहीं देता। अगर मैंने तुम्हें अभी छुड़ा दिया तो तुम फ़ौरन मेरा ही शिकार करोगे इसलिए मैं सवेरे शिकारी के नजर आने पर तुम्हें मुक्त करूँगा। उस समय तुम्हें जब अपनी जान बचा के भागना होगा, तभी मुझे भी बचने का मौका मिल जाएगा। बिल्ली ने इमानदारी और नैतिकता कि दुहाई दी, कहा दोस्त तो ऐसे तरीके से वादा पूरा नहीं करते! चूहा बोला भय जहाँ हो वहां मैत्री नहीं होती, जहाँ कोई डर हो वहां तो संपेरे जैसा हाथ बचा कर ही सांप को नचाया जाता है।


ऐसे ही तर्क-वितर्क चलता रहा, चूहा धीमी गति से जाल काटता रहा और जैसे ही शिकारी नजर आने लगा उसने अपनी रफ़्तार बढ़ा कर पक्का शिकारी के नजदीक आने पर जाल काटा। शिकारी जाल में फंसी बिल्ली को पकड़ने झपटा लेकिन जाल कट चुका था तो बिल्ली बचकर भागने में कामयाब ह गई। चूहा छोटा सा था, वो भी दुबक कर अपने बिल तक पहुँच गया। हताश शिकारी भी अपना टूटा जाल समेट कर उसे ठीक करने चला गया। अब ऊँची डाल पर बैठी बिल्ली ने चूहे से फिर से दोस्ती गांठने कि कोशिश कि। दोस्ती कितनी अच्छी, कितनी महत्वपूर्ण होती है ये समझाने लगी। चूहे ने कई तर्कों का हवाला देकर उसकी दोस्ती को ठुकराया। यहाँ आपको कई महत्वपूर्ण तर्क सिर्फ बच्चों के सीखने के लिए ही नहीं अपने लिए भी मिल जायेंगे।


चूहा समझाता है कि दुनियां में दोस्त और दुश्मन कुछ नहीं होता, केवल परिस्थितियां होती हैं जिनके वश में हुआ आदमी अपने फायदे नुकसान को तौलता दोस्त या दुश्मन बनता है। दोस्त को दुश्मन, या दुश्मनों को दोस्त होते कई बार देखा गया। हर कोई अपने लाभ के चक्कर में होता है, फायदे के लालच के बिना सम्बन्ध नहीं बनते। चूहा बिल्ली को ये भी सिखाता है कि दोनों के पास कारण था इसलिए हम दोस्त बने, लेकिन उस परिस्थिति का अंत होते ही हममें दोस्ती का कोई कारण अब बचा नहीं है। अब जो तुम्हें मुझसे दोस्ती कि सूझ रही है वो तुम्हारे रात भर भूखे रहने के कारण है, मुझमें तुम्हें आहार दिख रहा है!


जिन परिस्थितियों में संधि या युद्ध होते हैं वो परिस्थितियां जैसे ही बदलती हैं, संधि या आक्रमण बेमानी हो जाते हैं। बिल्ली उसी दिन चूहे कि शत्रु थी, हालात बदले तो दोस्त बनी, और फिर हालत बदलते ही दोबारा दुश्मन हो चुकी थी। आँख मूंदकर दोस्त पर भरोसा या सिर्फ शत्रु है इसलिए उसपर अविश्वास करने वाले मूर्ख होते हैं। समझदार लोग धन-बल के अहंकार में रहने वालों के आस पास ना रहने की भी सलाह देते हैं। संधि के ये सिद्धांत उतने पुराने और बेकार भी नहीं जितना शायद आप सोच रहे हैं। भारतीय कानून अभी भी कॉन्ट्रैक्ट एक्ट में करीब करीब इसे मानता है। जैसे अभी मैं प्रधानमंत्री के साथ किसी समझौते पर हस्ताक्षर कर के कल पलट सकता हूँ।


भारतीय कानूनों पर भरोसा रखिये, मुझे थोड़ी परेशानी जरूर हो सकती है, लेकिन अदालत से मुझे सजा तो हरगिज़ नहीं होगी जी। सैद्धांतिक तौर पर समझौते या कॉन्ट्रैक्ट पर दो समान स्तर के लोग हस्ताक्षर करते हैं जी। एक व्यक्ति प्रधानमंत्री जितना बड़ा आदमी हो और दूसरा मेरे जैसा आम आदमी तो उनके बीच कॉन्ट्रैक्ट या समझौता नहीं हो सकता जी। मैं भी किसी आधे राज्य के प्रधान का बिलकुल उल्टा, यानी काम नहीं करने देते जी के बदले काम करवाना चाहता है जी तो कह ही सकता हूँ जी। प्रधानमंत्री जी मेरे साथ जबरन समझौता नहीं कर सकते जी! कोशिश कर के देखिये, ये जो मामूली सी बच्चों के लायक कहानी है वही मौजूदा कानून है।


कौन सी कहानी आपको बच्चों के लायक कहानी सुनाते सुनाते बड़ों के लायक नीतिनिर्देश दे रही है, ये तय कर के कहानियों को बच्चों और बड़ों के बीच छांटना भी महाभारत में संभव नहीं। आपको जो समझाना मुश्किल लगता हो उसे पहले खुद और बाद में दूसरों को समझाने के लिए भी महाभारत का शांति पर्व पढ़ने पर विचार किया जा सकता है। बाकी ये जो बच्चों को सिखा जाती है सो तो हैइये है!


रात कौन बनेगा करोड़पति में बच्चन साहब ने पञ्चतन्त्र से जुड़ा एक सवाल पूछा। उनका सवाल पंचतंत्र की एक जानी-मानी कहानी पर था, जो सुनी तो शायद सबने होगी, लेकिन वो पञ्चतन्त्र की है, ये शायद कम ही लोग जानते होंगे। एक बार पहले भी पञ्चतन्त्र से जुड़े सवालों में प्रतिस्पर्धी को तब दिक्कत आ गयी थी जब उन्होंने पूछा था कि पंचतंत्र में कितने भाग होते हैं? मित्रभेद नाम के पञ्चतन्त्र के पहले भाग की बगुला बिशप से जुड़ी ये कहानी बड़ी पहचानी सी है।


मोटे तौर पर इस कहानी में होता यूँ है कि एक भरे पूरे तालाब के किनारे रहने वाला बगुला आलसी और मक्कार था। रोज मेहनत करके मछलियाँ पकड़ने के बदले वो आराम से बैठकर खाना चाहता था। इसलिए वो एक दिन बैठकर तालाब के सामने ही रोने-धोने और मायूस होने का नाटक करने लगा। तालाब में रहने वाला एक केकड़ा जब उससे पूछने आया कि वो दुखी क्यों है तो वो कहने लगा कि उसका जी उचट गया है। एक प्रोफेसी करने वाले ने उसे बताया है कि यहाँ भयानक सूखा पड़ने वाला है और बारह वर्ष तक वर्षा नहीं होगी।


ये सुनकर केकड़ा भी घबराया। उसने जाकर तालाब की मछलियों और अन्य जीवों को बताया कि उसे बगुला बिशप ने कहा है कि सूखा पड़ने वाला है और उनका तालाब भी सूख जायेगा। जब तालाब में रहने वाले जीवों को पता चला कि तालाब सूखने की जानकारी से बगुला बिशप का मन दुनियां से उचट गया है तो उन्होंने बगुला बिशप से जानकारी की पुष्टि करनी चाही। बगुला बिशप ने कहा कि वो दूर के एक बड़े तालाब का पता जानते हैं। अगर तालाब के प्राणी चाहें तो वो उन्हें एक एक करके अपनी पीठ पर बिठाएंगे और उड़कर दूसरे बड़े तालाब में छोड़ आयेंगे।


तालाब के जीवों को ये योजना ठीक लगी। अब एक जीव को लेकर बगुला बिशप एक बार में उड़ते और दूर जंगल में एक चट्टान पर ले जाकर ऊंचाई से ही पटक देते। मरे जीव को खाकर वो लौटते और फिर दूसरे जीव को लेकर उड़ जाते। कुछ दिन इसी तरह चलता रहा और बगुला बिशप खा-खा कर मोटे होते रहे। एक दिन केकड़ा बोला, मामा सबको तुम ले जा रहे हो, आखिर मेरी बारी कब आएगी? बगुला बिशप हंसकर बोला, चलो आज सबसे पहले तुम्हें ही लेकर चलता हूँ। बगुला केकड़े को लेकर चट्टान की ओर उड़ चला।


रास्ते में केकड़े ने पूछा कि उड़ते-उड़ते बहुत देर हो गयी। क्या दूसरा तालाब अभी बहुत दूर है? बगुला बिशप ने हंसकर नीचे की ओर इशारा किया और बोला, वो देखो तुम्हारे सारे मित्र यहाँ पड़े हैं। तुम्हें भी मैं अभी उनके पास पहुँचाने वाला हूँ। नीचे इधर उधर बिखरे मछलियों के कांटे और हड्डियाँ देखकर केकड़े को समझ में आ गया कि बगुला क्या करने वाला है। केकड़ा घबराया नहीं, उसने आपने पंजो से कसकर बगुले की गर्दन ही दबोच ली। बगुले ने छटपटा कर छूटने की खूब कोशिश की, लेकिन अंत में खुद ही उस चट्टान पर गिरकर मर गया। जैसे तैसे तालाब पर वापस लौटकर केकड़े ने सबको बगुला बिशप की कहानी सुनाई।


बच्चे इस कहानी से काफी सीखेंगे, लेकिन बड़े भी उतना ही सीख सकते हैं। जैसे केकड़े को बगुले ने कहा कि उसे किसी साधू ने बताया है जैसे वाक्य झूठे होते हैं। उदाहरण के तौर पर होली का दौर याद कीजिये जब किसी लड़की को उसकी मित्र ने बताया था कि उसकी रूममेट ने कहा कि किसी ने उसपर 'पता नहीं क्या' भरा गुब्बारा फेंका है। एक व्यक्ति जब कहे कि उसे दूसरे ने किसी तीसरे के हवाले से कहा तो वो झूठ कह रहा होता है। जैसे तालाब के जीवों को केकड़े ने कहा कि बगुला बिशप को किसी हर्मिट ने कहा है।


अगर ये कहानी किसी नन ने सुनी होती तो वो बिलकुल विश्वास नहीं करती कि बिशप को किसी होली बुक से पता चला है कि उसके वाले गॉड की शरण में जाने से सारे पाप धुल जायेंगे। अगर बलात्कारी बिशप ने ये कहानी सुनी होती तो उसे पता होता कि केकड़े के जरिये तालाब के दूसरे जीवों को फांसने के बदले अगर वो बगुले की तरह केकड़े को ही खा जाने की कोशिश करे तो नतीजा क्या हो सकता है। ऐसे में बलात्कारी बिशप भी सीधा नन पर हाथ डालने के बदले नन के जरिये दूसरे मासूम हिन्दुओं का शिकार करता।


बाकी आपने #पञ्चतन्त्र पढ़ी है या नहीं ये तो आप ही बताइयेगा। हाँ हम यकीन से ये बता सकते हैं कि धूप में बाल सफ़ेद किये बैठे जो लोग #पंचतंत्र को बच्चों की कहानी बताते हैं, वो अभी अंगूठा चूसते बच्चे ही हैं।


पुरानी सी कहावत “बूढ़ा तोता राम-राम नहीं रटता” कई अलग रूपों में भारत में प्रचलित है। जैसे मैथिलि में इसके लिए “सियान कुकुर पोस नै मानै छै” कहा जाता है, जिसका मतलब होता है कि कुत्ता बड़ा हो जाए तो उसे पालतू नहीं बनाया जा सकता। ये कहावत भी हिन्दुओं की मूर्खता करने और कर के फिर उसी पर अड़े रहने की विकट क्षमता दर्शाती है। बचपन से ही सिखाना होगा ये जानने के बाद भी ज्यादातर सनातनी परंपरा के लोग अपने धर्म के बारे में अपने बच्चों को कुछ भी सिखाने का प्रयास नहीं करते।


शायद उन्हें लगता होगा कि इस काम के लिए कोई पड़ोसी आएगा, ये उनकी जिम्मेदारी नहीं है। ऐसी ही वजहों से अगर आज किसी ऐसे आदमी से, जो गर्व से खुद को सनातनी कहता हो, उस से पूछ लें कि अगली पीढ़ी को अपने धर्म के बारे में बताने के लिए आपके घर में कौन सी किताबें हैं? तो वो बगलें झाँकने लगेगा। नौकरी-काम के सिलसिले में आप चौबीस घंटे बच्चे के लिए उपलब्ध नहीं हैं, दादी-नानी भी दूर कहीं रहती हैं, तो आपको तो सिखाने के लिए किताबें या कुछ घर में रखनी चाहिए थीं।


इतने प्रश्न बहुत सरल भाषा में, मधुर वाणी में और मुस्कुराते हुए ही पूछियेगा। क्योंकि इतने सवालों पर आपको सनातनी मूर्खता के बचाव में विकट तर्क सुनाई देने लगेंगे। वो बताएगा कॉमिक्स पढ़कर बच्चे बिगड़ जाते हैं, महंगी भी होती हैं इसलिए अमर चित्र कथा उसने नहीं ली है। वो ये भी बताएगा कि पञ्चतंत्र के नाम में ही तंत्र है, उसका ऐसी चीज़ों पर विश्वास नहीं, फिर पुराने जमाने कि इस किताब से आज के बच्चे क्या सीखेंगे? इसलिए वो पंचतंत्र जैसी किताबें भी नहीं लाया।


आपको तो पता ही है कि भगवद्गीता पढ़कर पड़ोस के कितने ही लोग साधू हो गए हैं! दस-बीस ऐसे लोग जो पहले पन्ने से आखरी पन्ने तक भगवद्गीता पड़कर साधू हुए हैं, ऐसे सनातनियों को कौन नहीं पहचानता? रोज ही दिख जाते हैं, इसलिए वो भगवद्गीता भी घर में नहीं रखता। महाभारत घर में रखने से झगड़े होते हैं, रामायण कहाँ ढूंढें पता ही नहीं, कोई चम्मच से मुंह में डाल देता, मेरा मतलब पढ़ा देता तो सीख कर एहसान भी कर देते। अब बच्चों कि किताबों में रूचि भी नहीं रही, कोई किताबें नहीं पढ़ता।


ऐसे तमाम तर्क सुनने के बाद आप आक्रमणकारियों की सनातनी से तुलना कर के देखिये। डेविड बर्रेट और जेम्स रीप के “Seven Hundred plans to Evangelize the world; the rise of a Global Evangilization movement” के मुताबिक चर्च के पास 1989 में 41 लाख पूर्णकालिक थे जो आत्माओं की फसल काटते थे। Soul Harvesting करते थे, आपका शराफत वाला “धर्म-परिवर्तन” मासूम सा शब्द है। उनके पास 13,000 बड़े पुस्तकालय थे, 22,000 पत्रिकाएँ छापी जाती थी और 1800 इसाई रेडियो/टीवी चैनल भी वो चला रहे थे।


पिछले तीस साल में ये गिनती कितनी बढ़ी होगी ये सोचने में जितना समय लगे उतने में उसी स्रोत से ये भी बता दें कि उस वक्त 400 मिशन एजेंसी थी जो आत्मा जब्त करने का काम करती थी। इन आत्मा जब्ती के संस्थानों में 262300 आत्मा के लुटेरे मिशनरी थे और ये 8 बिलियन डॉलर के करीब के खर्च से चलने वाला काम था। सिर्फ आत्मा-खसोट पर साल भर में 10000 किताबें और लेख आते हैं। ये सब प्रत्यक्ष हो ऐसा जरूरी नहीं, जातिवाद को उभारने, असंतोष भड़काने के लिए जो लेख लिखवाए उसे भी इसमें जोड़िएगा।


जब ये कर चुके हों तो फिर से बता दें कि ये जानकारी तीस साल पुरानी है। इस वर्ष, छुट्टियों के दौरान, अगर आप एक दो किताबें भी घर नहीं लाये हैं, कुछ पढ़ने कि कोशिश भी नहीं की है तो अगली पीढ़ी तक क्या होगा, उसका अंदाजा तो आप लगा ही सकते हैं। पूरे देश में लागू होने वाले धर्म-परिवर्तन पर नजर रखने लायक कानून तो बने नहीं हैं, जबकि संवैधानिक तौर पर ये केंद्र सरकार का ही विषय है, ये शायद आपने नहीं सोचा होगा।


ध्यान रहे कि इनका निशाना अक्सर गरीब-पिछड़ा तबका होता है तो ये आपके घर काम करने वाली के मोहल्ले में पहले आयेंगे। आपकी काम वाली बाई कहीं गौमांस खाकर आपके पूजा घर के आस पास झाड़ू-पोछा, सफाई तो नहीं कर रही होगी ना?




सोचिये, सोचना चाहिए!
आनन्द कुमार