भारत में कभी नक्षत्रयंत्र हुआ करते थे ब्रह्माण्ड का मॉडल

प्राचीन हिन्दू, खगोलशास्त्र में कितना आगे थे, इसका प्रमाण हैं ये दो सौ साल पुराने 'नक्षत्रयंत्र' या 'वेधयंत्र' या 'यंत्रराज' (एस्ट्रोलैब)। धातु के बने ये गोलाकार यंत्र एक प्रकार से ब्रह्माण्ड का मॉडल हुआ करते थे, जिनपर ग्रहों और राशियों को दर्शाया जाता था। इनको टाँगने के लिए इनमें ऊपर की ओर एक छल्ला लगा रहता था। इसका एक पृष्ठ समतल होता था, जिसके छोर पर ३६० डिग्री अंकित रहते थे तथा केंद्र में लक्ष्यवेध के उपकरण से युक्त़ चारों ओर घूम सकनेवाली एक पटरी लगी रहती थी। यह भाग ग्रह नक्षत्रों के उन्ऩतांश नापने के प्रयोग में आता था। इसके दूसरी ओर के पृष्ठ के किनारे उभरे रहते थे तथा बीच में खोखला होता था।



इस खोखले में मुख्य तारामंडलों तथा राशिचक्र के तारामंडलों की नक्काशी की हुई धातु की तश्तरी बैठाने का स्थान होता था। यह यंत्र चारों ओर घुमाया जा सकता था। इसके अतिरिक्त़ इस यंत्र में उन्नतांशसूचक तथा समयसूचक आदि तश्तरियां एक-दूसरे के भीतर बैठाई जा सकती थी। १४वीं शताब्दी में महेंद्रसूरी ने 'यंत्रराज' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इसके बाद १९वीं शताब्दी तक इस पर कई टीकाएँ प्रकाशित हुईं। इससे सिद्ध है कि अपने यहाँ यंत्र निर्माण की परम्परा अति प्राचीन और मौलिक है, न कि यूनानी और इस्लामी खगोलविज्ञान की उधारी।


इन यंत्रों पर देवनागरी-लिपि में उत्कीर्ण राशियों के नाम, नक्षत्रों के नाम और अंकों को स्पष्ट पढ़ा जा सकता है। दुर्भाग्य की बात है कि ऐसे सैकड़ों नक्षत्रयंत्र विदेशी संग्रहालयों में पड़े हुए हैं और बहुतों की तो ऑनलाइन बिक्री भी की जा रही है।