कविता : ऊंची दुकान फीका पकवान


ऊंची दुकान फीका  पकवान ।
फिर भी चल रही है   दुकान ।।


चाहे गरीब हो या धनवान ।
सबसे पहले बने    इंसान ।।


जिसे इंसानों का  दर्द नहीं ।
सच्चा सामाजिक-मर्द नहीं ।।


जो सेवा छोड़,बस मेवा खाता है।
कैसा सामाजिक है, जो समाज को लजाता है ।।


जो सेवा में भी व्यापार को कमाता है।
वह 'बदला'  नहीं है, कुछ 'बदला' चाहता है ।।


जो अहंकार द्वेष और नफरत हटाता है ।
वही सच्चा समाजसेवी बन जाता है ।।


दबे कुचले समाज को सब नए नजरिए से देखें।
समाज मंचों के तवे पर अपनी रोटी ना सेंकें।।


आइए ! हम सब मिलकर, समाजसेवियों को परखें।
संवेदनशील,साहसी,समर्थकों को रखें।।