नई दिल्ली। तमाम सरकारी दावों , प्रतिदावों के बावजूद महानगरों, नगरों से श्रमिक पलायन का रास्ता नहीं छोड़ रहे हैं। उनके सामने कोरोना से ज्यादा खतरा उनके भूख के लिए है। भारत सरकार द्वारा तमाम एलानिया घोषणा के बाद भी श्रमिकों को सरकारी योजनाओं पर न तो भरोसा है, न ही उन्हें उसका लाभ ही मिल पा रहा है। राशन सामग्री भी उनको मिल पा रहा है, जिनके पास राशन कार्ड अथवा उसे संबंधित सरकारी दस्तावेज हो। लेकिन इन महानगरों में अधिक परसेंट श्रमिकों का न तो कोई राशन कार्ड है न यहां का आधार कार्ड होता है। इस कारण उनको यहां सरकारी सुविधाएं नहीं मिल पाती है।
जब लॉकडाउन के कारण सभी काम धंधे बंद हैं, तो ऐसे में उन्हें रोजगार नहीं मिल पा रहा है। उनके सामने भूख और जीवन का यक्ष प्रश्न खड़ा है। एक तो रोजगार एवं काम नहीं , दूसरे किरायेदारी का बोझ इनके उपर प्रकट होता है। यानी शोषण, दोहन और दमन का इन पर कुठाराघात होता रहता है। ऐसे में श्रमिक सरकार के सारे नियमों कानूनों को ठेंगा उड़ाते हुए जीवन बचाने के मार्ग पर आगे कदम बढ़ा रखे हैं। यह सरकार के लिए बहुत बड़ी मुसीबत और चुनौती है कि वह इसका समाधान कैसे करे ?
भारत सरकार की नीतियां धरातल पर नहीं उतर पा रही है। सरकारी योजनाओं को कहीं न कहीं आला अधिकारियों के द्वारा राहत देने में आगे नहीं बढ़ पा रही है। कहा तो यही जा रहा है कि एक तरह से इंस्पेक्टर राज आज भी उसी तरह है, जिस तरह अंग्रेजों के जमाने में था।
दिल्ली-यूपी के बॉर्डर पर गाजीपुर में रविवार सुबह सैकड़ों मजदूरों की भीड़ इकट्ठा हो गई है। पैदल घर लौट रहे इन मजदूरों को यूपी पुलिस ने सीमा पर रोक दिया है। दरअसल शनिवार को औरैया हादसे में 24 मजदूरों की मौत के बाद यूपी सरकार ने जिला मजिस्ट्रेटों को आदेश दिया था कि किसी भी हाल में मजदूरों को पैदल, अवैध या असुरक्षित यात्रा करने से रोका जाए और उनके लिए बसों की व्यवस्था की जाए। यूपी पुलिस का कहना है कि गाजीपुर में मजदूरों की भारी भीड़ हैं, हम उन्हें ट्रेन या बस लेने के लिए कह रहे हैं. क्योंकि बिना वैध पास के किसी भी व्यक्ति को राज्य में प्रवेश नहीं होगा।
चूंकि बड़ी संख्या में यहां श्रमिक विभिन्न भागों से चलकर पहुंचे हैं और यूपी सीमा में प्रवेश करना चाहते हैं। लेकिन इन्हें गाजीपुर बॉर्डर पर ही रोक दिया गया है। ऐसे में श्रमिकों के सामने पीछे लौटने में भी काफी दिक्कतें हैं, क्योंकि उनकी ऐसी स्थिति है जैसे वह न घर के हैं, ना घाट के हैं। बीच रास्ते में वह समस्या के उलझनों के झूले में झूल रहे हैं।